Lout ke buddhu ghar ko aaye - 1 in Hindi Comedy stories by Kishanlal Sharma books and stories PDF | लौट के बुद्धू घर को आये - (पार्ट 1)

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लौट के बुद्धू घर को आये - (पार्ट 1)

बाबा
नाम सुनते ही आप सोचने लगेे होंगे । केसरिया वस्त्र , बड़ी बड़ी जटा, हाथ मे कमंडल और चिमटा या किसी नंग धड़ंग शरीर पर भभूत लगाए या किसी इसी तरह के बाबा के बारे में आपको बताने जा रहा हू।
जी नहीं।मैं ऐसे किसी भी बाबा के बारे में नही बताने जा रहा।फिर आप पूछेंगे मैं किस बाबा की बात कर रहा हूँ?मैं अपने साथ काम करनेवाले बाबा कज बात कर रहा हूं।
बाबा और काम,मतलब नौकरी।हैं न आश्चर्यजनक बात।पर चोंकिये मत।
उस बाबा का नाम कांति लाल है।
आगे बढ़ने से पहले।जरा यह भी सुन ले।बाबा रामदेव तो आज की बात है।मैं सर्विस में सन 1970 में आया था।रेलवे में और पहली पोस्टिंग आगरा में हुई।तब बाबा के सम्पर्क में आया।रामदेव और कांति लाल की शक्ल सूरत में मामूली अंतर हो सकता है।लेकिन रामदेव ने जो योग हमे अब सिखाया।वह बाबा तब करता था।अनुलोम विलोम,कपाल भारती सब कुछ जिनके जरिये रामदेव विश्वगुरु बन गए।वो सब योग आसान बाबा बहुत पहले करता था।फर्क इतना है बाबा के भाग्य में नही था या उसमे इतना गुण चतुराई नही थी।अगर होती तो आज जहाँ बाबा रामदेव है।उस आसन पर बाबा कांति लाल बैठे होते।अपना अपना भाग्य है।लक्ष्मी जिसे चाहे उस पर मेहरबान हो जाये।
अब आगे बढ़ते है।
रेलवे में कांति लाल आया तब आम भारतीय युवकों की तरह ही था।पेंट कमीज पहनता था।रेलवे में वह बुकिंग क्लर्क के पद पर आया था।जब उसकी पोस्टिंग अशोकनगर में थी।तब उसके साथ एक हादसा ही गया था।उसके काउंटर में से तीन हज़ार रुपये चोरी हो गए थे।बुकिंग आफिस में टॉयलेट नही होते थे।वह टॉयलेट गया तब उसके काउंटर से तीन हज़ार रु निकल गए।आज के युग मे तीन हज़ार कोई मायने नही रखते।लेकिन सन 1970 से पहले तीन हज़ार की हेमियत बहुत थी।सन 1970 में मैं जब भर्ती हुआ तब शुरुआत में बेसिक और डी ए मिलाकर 208 रु तन्खाह मिलती थी।आप समझ सकते है उस समय
कांति लाल के खिलाफ जांच हुई।उसका सरकारी केस चोरी हुआ और उसे ही दोषी सिद्ध कर दिया गया।तय हुआ 50 रु हर महीने उसकी तन्खाह से कटेंगे।200 रु तन्खाह और 50 कि कटौती।
उन दिनों कमर्शियल क्लर्क को यूनिफार्म नही मिलती थी।सब अपनी पसंद के कपड़े पहनकर ड्यूटी आ सकते थे। कांति लाल कैसे परिवार का खर्च चलाता।उसने पेंट कमीज छोड़कर धोती कुर्ता अपना लिया।बाल दाढ़ी बढ़ाकर बाबा हो गया।एक टाइम खाने का प्रण ले लिया।मतलब वह गृहस्थ सन्यासी हो गया।कांति लाल नाम ऑफीस के रिकॉर्ड तक ही सीमित हो गया।सहकर्मी, मित्र,रिश्तेदार, टिकट लेने काउंटर पर आने वाले उसके बच्चों की तो बात छोड़िए उसकी पत्नी भी उसे बाबा कहकर ही बुलाने लगी।सबके लिए वह बाबा होकर रह गए।
भूमिका बहुत बांध ली।अब असली कहानी पर आते है।आपने एक कहावत ज़रूर सुनी होगी।जहां जहां पांव पड़े संतन के तहां तहां बंटा धार।यह कहावत हमारे बाबा पर भी लागू होती है।बाबा जहां भी पहुंच जाए वहां बिनता काम बिगड़ जाए।उनके जहां भी पैर पड़ते है कुछ न कुछ गड़बड़ ज़रूर होती है।इसलिए कुछ लोग तो बुलाने से भी कतराने लगे है।न्यौता देना ही पड़े तो प्रार्थना करते है।किसी कारण न ही आये तो अच्छा है।
(शेष कथा अगले भाग में)